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त्वम॑ग्न उरु॒शंसा॑य वा॒घते॑ स्पा॒र्हं यद्रेक्णः॑ पर॒मं व॒नोषि॒ तत्। आ॒ध्रस्य॑ चि॒त्प्रम॑तिरुच्यसे पि॒ता प्र पाकं॒ शास्सि॒ प्र दिशो॑ वि॒दुष्ट॑रः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agna uruśaṁsāya vāghate spārhaṁ yad rekṇaḥ paramaṁ vanoṣi tat | ādhrasya cit pramatir ucyase pitā pra pākaṁ śāssi pra diśo viduṣṭaraḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। उ॒रु॒ऽशंसा॑य। वा॒घते॑। स्पा॒र्हम्। यत्। रेक्णः॑। प॒र॒मम्। व॒नोषि॑। तत्। आ॒ध्रस्य॑। चि॒त्। प्रऽम॑तिः। उ॒च्य॒से॒। पि॒ता। प्र। पाक॑म्। शास्सि॑। प्र। दिशः॑। वि॒दुःऽट॑रः ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:31» मन्त्र:14 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:34» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:7» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अगले मन्त्र में भी उसी अर्थ का प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विज्ञानप्रिय न्यायकारिन् ! (यत्) जिस कारण (प्रमतिः) उत्तमज्ञानयुक्त (विदुष्टरः) नाना प्रकार के दुःखों से तारनेवाले आप (उरुशंसाय) बहुत प्रकार की स्तुति करनेवाले (वाघते) ऋत्विक् मनुष्य के लिये (स्पार्हम्) चाहने योग्य (परमम्) अत्युत्तम (रेक्णः) धन (पाकम्) पवित्रधर्म और (दिशः) उत्तम विद्वानों को (वनोषि) अच्छे प्रकार चाहते हैं और राज्य को धर्म से (आध्रस्य) धारण किये हुए (पिता) पिता के (चित्) तुल्य सबको (प्र शास्सि) शिक्षा करते हैं, (तत्) इसी से आप सब के माननीय हैं ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पिता अपने सन्तानों की पालना वा उनको धन देता वा शिक्षा आदि करता है, वैसे राजा सब प्रजा के धारण करने और सब जीवों को धन के यथायोग्य देने से उनके कर्मों के अनुसार सुख दुःख देता है ॥ १४ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एवोपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे अग्ने विज्ञानयुक्त न्यायाधीश ! यद् यतः प्रमतिर्विदुष्टरस्त्वमुरुशंसाय वाघते स्पार्हं परमं रेक्णो धनं पाकं दिश उपदेशकाँश्च वनोषि धर्मेणाध्रस्य सर्वान् पिता चिदिव प्रशास्सि तस्मात् सर्वैर्मान्यार्होऽसि ॥ १४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) प्रजाप्रशासिता (अग्ने) विज्ञानस्वरूप (उरुशंसाय) उरुर्बहुविधः शंसः स्तुतिर्यस्य तस्मै (वाघते) वाक् हन्यते ज्ञायते येन तस्मै विदुष ऋत्विजे मनुष्याय। वाघत इत्यृत्विङ्नामसु पठितम् । (निघं०३.१८) (स्पार्हम्) स्पृहा वाञ्छा तस्या इदं स्पार्हम् (यत्) यस्मात् (रेक्णः) धनम् । रेक्ण इति धननामसु पठितम् । (निघं०२.१०) रिचेर्धने घिच्च। (उणा०४.१९९) अनेन रिच्धातोर्धनेऽर्थेऽसुन् प्रत्ययः स च घिन्नुडागमश्च। (परमम्) अत्युत्तमम् (वनोषि) याचसे (तत्) धनम् (आध्रस्य) समन्ताद् ध्रियमाणस्य राज्यस्य। अत्र आङपूर्वाद्धाञ् धातोर्बाहुलकादौणादिको रक् प्रत्यय आकारलोपश्च। (चित्) इव (प्रमतिः) प्रकृष्टा मतिर्ज्ञानं यस्य सः (उच्यसे) परिभाष्यसे (पिता) पालकः (प्र) प्रकृष्टार्थे (पाकम्) पचन्ति परिपक्वं ज्ञानं कुर्वन्ति यस्मिन् धर्म्ये व्यवहारे तम् (शास्सि) उपदिशसि (प्र) प्रशंसायाम् (दिशः) ये दिशन्त्युपसृजन्ति सदाचारं तानाप्तान् (विदुष्टरः) यो विविधानि दुरिष्टानि तारयति प्लावयति सः ॥ १४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा पिता स्वसन्तानस्य पालन-धनदान-धारण-शिक्षां करोति, तथैव राजा सर्वस्याः प्रजाया पालकत्वाज्जीवेभ्यः सर्वेषां धनानां सम्यग्विभागेन तेषां कर्मानुसारात् सुखदुःखानि प्रदद्यात् ॥ १४ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पिता आपल्या संतानांचे पालन व धारण करून त्यांना धन व शिक्षण देतो, तसे राजाने सर्व प्रजेला धारण व पालन करून सर्व जीवांना यथायोग्य धन देऊन त्यांच्या कर्मानुसार सुख-दुःख देत राहावे. ॥ १४ ॥